Thursday, May 10, 2007

राष्ट्रपति कलाम की दो कविताएं

हमारे माननीय राष्ट्रपति जो ’जनता के रासःट्रपति के रूप में अधिक लोकप्रिय हैं. एक वैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक आदि के रूप में तो उनकी प्रतिभा सर्वविदित है ही साथ ही वे एक बहुत अच्छे कवि भी हैं. निम्न कवितएं उनकी आत्मकथा ’अग्नि की उड़ान से ली गयी हैं....


ज्ञान का दीपक जलाए रखूंगा

हे भारतीय युवक
ज्ञानी-विज्ञानी
मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य
की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े
मैं मेहनत करूंगा
मेरा देश महान् हो
धनवान् हो, गुणवान् हो
यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है,
कहीं भी धरती पर,
उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रखूंगा
जिससे मेरा देश महान हो।



माँ

समंदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री,
रामेश्वरम द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।
सबमें तू निहित,
सब तुझमें समाहित।

तेरी बांहों में पला मैं,
मेरी कायनात रही तू।
जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा सा मैं
जीवन बना था चुनौती, जिंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम
पहुंचते किरणों से पहले।
कभी जाते मंदिर लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती रेत भरी सड़क,
बांटे थे अखबार मैंने
चलते-पलते साये में तेरे।

दिन में स्कूल,
शाम में पढ़ाई,
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई,
तेरी पाक शख्शियत ने बना दीं मधुर यादें।
जब तू झुकती नमाज में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझ पर
और मेरे जैसे कितने नसीबवालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान।

याद है अभी जैसे कल ही,
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में,
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र-
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार।
आधी रात में, अधमुंदी आंखों से ताकता तुझे,
थामता आंसू पलकों पर
घुटनों के बल
बांहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं।
तूने जाना था मेरा दर्द,
अपने बच्चे की पीड़ा।
तेरी उंगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से,
और भरी थी मुझमें
अपने विश्वास की शक्ति-
निर्भय हो जीने की,
जीतने की।
जिया मैं
मेरी माँ !
और जीता मैं।
कयामत के दिन
मिलेगा तुझसे फिर तेरा कलाम,
माँ तुझे सलाम।

1 comment:

अभिनव said...

धन्यवाद