Sunday, November 12, 2006

"दिल्ली जा रहा हूँ........"

मेरे शहर में एक सज्जन हैं जिन्हें 'दिल्ली' शब्द से बड़ा प्रेम है। सोते-जागते, दिन-रात इनके खयालों में यही एक शब्द मँडराया करता है। इनके मुँह से कोई बात निकले और उसमें दिल्ली शब्द ना आये तो आप छत पर जाकर देख सकते हैं, आपको सूरज पश्चिम से ही उगता नजर आयेगा। जिस तरह लोग अपने दिल का कमरा महबूबा के नाम कर देते हैं उसी तरह इनके शरीर में दिल वाले हिस्से पर दिल्ली एकछत्र राज करती है। वैसे भी 'दिल' और 'दिल्ली' में ज्यादा फ़र्क ना होने के कारण इन्होंने दिल को दिल्ली के नाम कर छोड़ा है।

इनके इस दिल्ली प्रेम के पीछे भी एक कहानी है। इन्होंने एक जमाने में गलती से बी.ए. पास कर डाला। चूँकि इनके घर में कोई भी इतना पढ़ा-लिखा नहीं था सो पूरे कुनबे ने इन्हें चने के झाड़ पर बैठाकर दिल्ली रवाना कर दिया कि जा बेटा अब आई.ए.एस. बनकर ही लौटना। इन्होंने भी अपने घर-परिवार-रिश्तेदार-शहर इत्यादि की आशाओं को पूरा करने की ठान ली। इनके दो ही प्रिय विषय थे- भूगोल और हिंदी साहित्य। भूगोल की तैयारी में तो इन्होंने दिन-रात एक करके पूरे दिल्ली की सड़कें और थियेटर छान डाले। और हिंदी-साहित्य के लिए ये फ़ुटपाथ पर लगे किताबों के ढेर में तन-मन से मनोहर कहानियाँ टाइप रेफ़रेंस बुक्स को ढूँढ़ने में जुटे रहते। डीप स्टडी के लिए ये कुछ और भी पुस्तकें पढ़ते जिससे हिंदी साहित्य के साथ ही इनके भूगोल विषय की एक शाखा शारीरिक भूगोल की भी तैयारी हो जाती। दो साल दिल्ली पर एहसान करने के बाद ये घर लौटे। घर लौटने के बाद इन्होंने दुबारा दिल्ली का रुख नहीं किया दूसरे शब्दों में कहें तो करने नहीं दिया गया। शायद इनके भूगोल और साहित्य-प्रेम के बारे में इनके घरवालों को पता लग गया था। पर इनका दिल तो दिल्ली में रम चुका था। दिल्ली में रहते हुए ये एकाध बार जे.एन.यू. नामक जगह से भी गुजरे, जहाँ इन्होंने सुना कि आई.ए.एस की तैयारी करने वाले छात्र अपने रंग-ढंग से बेफ़िक्र रहते हैं। उस दिन से इन्होंने पैरों में रबड़ की चप्पल धारण कीं और दाढ़ी ना बनाने की कसम खा ली। अब ये वाकई एक गंभीर और अध्ययनशील छात्र दिखने लगे।

इनके दिल्ली के और भी किस्से हैं पर हम वापस इनके गृहनगर लौटते हैं। जिस तरह ये दिल्ली में भूगोल का अध्ययन करते थे उसी तरह यहाँ भी करने लगे। इनके इस अध्ययन की मार शहर की सड़कों को सहनी पड़ी हालाँकि घिसीं तो इनकी चप्पलें भी पर वे नयी खरीद लाते, लेकिन नगरपालिका उनके जैसी दरियादिल नहीं थी इसलिए सड़कों में जगह-जगह गड्ढे हो गये थे। जब भी कोई इन्हें रास्ते में मिलता तो एक स्वाभाविक सा सवाल पूछता कि दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है, ये समझाते कि भाई आजकल आई.ए.एस की तैयारी में व्यस्त हूँ टाइम ही नहीं मिलता। इस प्रकार दिल्ली की बात छेड़ने के लिए भूमिका बनाने में इनकी दाढ़ी का बहुत बड़ा हाथ था और ये तुरंत दिल्ली का जिकर छेड़ देते। फ़िर घूमफ़िरकर एक ही बात पर आ जाते- "बस कल ही दिल्ली जा रहा हूँ........." "दो-चार दिन के लिए आया था"
पर ये अगले दिन ही दिल्ली जाने की बजाय पानीपूरी के ठेले पर पाये जाते। फ़िर मिलने वाले को हें-हें करके बताते "पिताजी ने आज जाने से रोक लिया बोले बेटा थोड़ा और रुक जाओ, नहीं तो मैं आज निकल ही जाता।"

मेरा इनसे नया-नया परिचय था। लोगों से पता चला कि ये आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे हैं और दिल्ली से अभी-अभी लौटे हैं। मैंने दाढ़ी देखकर अंदाजा लगा लिया कि कोई बहुत ही डेडीकेटेड छात्र हैं। मैंने इनसे इनकी तैयारी के बारे में पूछ लिया तो इन्होंने बताया कि अभी तो कोई अटेम्प्ट नहीं किया है बस इस साल पहली बार परीक्षा में बैठूँगा।
मैंने भी आगे जानकारी लेना शुरू किया "कहाँ रहते हैं दिल्ली में आप, किस कोचिंग में पढ़ते हैं?"
फ़िर तो इन्होंने बड़ी शान से उत्तर दिया कि "जे.एन.यू. के बगल से ही रहता हूँ, कभी दिल्ली आओ तो जे.एन.यू. की लाइब्रेरी में मिल जाऊँगा। कोचिंग-वोचिंग के चक्कर में मैं नहीं पड़ा लोग फ़ालतू में पैसे बर्बाद करते हैं और घर वापस आ जाते हैं, अपन तो बस जे.एन.यू. के स्टूडेंट्स की संगत में रहते हैं वो लोग भी कोई कोचिंग थोड़े ही करते हैं बस सेल्फ़ स्टडी के दम पे निकाल देते हैं आई.ए.एस.।"

अब तो जब ये मिलते तब मैं इनकी पढ़ाई का जिक्र छेड़ देता। शुरू-शुरू में तो ये बड़े गर्व से बताते थे कि दिल्ली में ऐसा होता है वैसा होता हैं कोचिंगों पर नहीं जाना चाहिए सब ठग हैं और बाद में वही सुपरिचित जुमला- "कल ही दिल्ली जा रहा हूँ अबकी बहुत दिन हो गये"।
चूँकि मुझे भी आई.ए.एस. बारे में कम जानकारी थी तो मुझे भी इन ज्ञान की बातों में रस आता। पर कुछ ही दिनों में इनका मूड कुछ उखड़ा-उखड़ा रहने लगा। मैं जब भी कहीं इन्हें मिलता ये बच निकलने का प्रयास करते। एक दिन ये गुड़ का भेला काँख में दबाये बाजार से घर जा रहे थे, मुझे मिल गये तो इन्होंने मुँह दूसरी तरफ़ कर बचने का प्रयास किया। पर मैंने इन्हें पकड़ ही लिया और पूछा आप दिल्ली नहीं गये। ये खिसियाकर बोले नहीं जा पाया पर अगले सोमवार तक जरूर निकल लूँगा। मेरी बातों का जल्दी-जल्दी जवाब देकर ये घर की ओर भागे।

इस घटना के कई दिनों बाद तक ये दिखे नहीं। मैने सोचा जरूर इस बार वे दिल्ली निकल गये। एक दिन मैं कॉलेज में बैठा था मुझे दूर से ये अंदर आते हुए दिखाई दिये। इन्होंने मुझे भी देख लिया और नजर बचाकर किसी सुरक्षित जगह पर जाने के लिए जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगे। पर मैंने इन्हें पकड़ ही लिया जैसा कि मैं हमेशा करता था। अब इनकी स्थिति उस सिपाही जैसी हो गई जिसे बिना हथियारों के ही रणभूमि में उतरना है।
मैंने पूछा- "यहाँ कैसे?"
"कुछ नहीं एम.ए का फ़ार्म डालने आया था।"
"पर आप तो दिल्ली जाने वाले थे।"
"नहीं जा पाया अगले सोमवार निकल रहा हूँ सोचा एम.ए. का प्राईवेट फ़ार्म डाल दूँ। पेपर देने आ जाऊँगा।"
"पर आप तो जे.एन.यू. के पास रहते हैं ना वहीं से कर लेते एम.ए.।"
"मैने सोचा यहाँ फ़ार्म डाल दूँ कहाँ वहाँ रोज क्लास अटेंड करूँगा, आई.ए.एस. की तैयारी भी तो करनी है।"
इसके बाद उन्होंने देरी का बहाना करके मुझसे पीछा छुड़ाया और भाग लिए। उस दिन के बाद वे जब भी मुझे नजर आते हैं उनकी शक्ल उस स्कूली छात्र जैसी हो जाती है, जिसे पता है कि होमवर्क ना करने के कारण आज टीचर से मार पड़ने वाली है।
मैंने भी एक अहिंसावादी टीचर की तरह उनकी दुखती रग 'दिल्ली' के बारे में पूछना छोड़ दिया है।

10 comments:

अनूप शुक्ल said...

लेख पढ़ना अच्छा लगा.

Anonymous said...

बहुत अच्छे भुवनेश जी। :)

अनुराग श्रीवास्तव said...

हमेशा की तरह - बहुत बढिया!

संजय बेंगाणी said...

भुवनेश आप अच्छा लिखते है. जारी रखे.
टिप्पणी और लम्बी लिखता पर अभी दिल्ली जाना है, गाड़ी का समय हो रहा है.

Anonymous said...

नाम बड़े और दर्शन छोटे
ऐसे लोग हर जगह है होते.

Udan Tashtari said...

अच्छा है. वैसे आप दिल्ली कब जा रहे हैं? :)

Manish Kumar said...

हास्य का स्वाभाविक पुट डालने में आपकी माहिरी लगती है । बहुत खूब !

Anonymous said...

krapansu chelaa ko to aapne net par hi le aaye ,,---N

Anonymous said...

हास्य का पुट अच्छा लगा मगर लेख का अंदरूनी मर्म दिल में कहीं गहरे उतर गया.

अपने आसपास के सामाजिक परिवेश पर ऐसी सुक्ष्म दृष्टि!!! यह जज्बा बनाये रखो गुरू... बहुत आगे जाओगे.

शुभकामना!

Anonymous said...

फ़िर तो इन्होंने बड़ी शान से उत्तर दिया कि ".....अपन तो बस जे.एन.यू. के स्टूडेंट्स की संगत में रहते हैं वो लोग भी कोई कोचिंग थोड़े ही करते हैं बस सेल्फ़ स्टडी के दम पे निकाल देते हैं आई.ए.एस.।" हा हा ऐसे कइयों से मेरा भी पाला पड़ा है.
वाह भई, ये दिल्ली जाने को आतुर मित्र भी काइंया टाइप है. इसे समझाओ कि भई दिल्ली आने की ज़रूरत नहीं है. कंक्रीट के जंगल में फंस जाओगे तो ज़िंदगीभर निकल नहीं सकोगे. वैसे भी यहां टॉप क्लास के काइंया भरे पड़े हैं.
अच्छा व्यंग्य लिखे हो भुवनेश भैया. धन्यवाद